सब चलता है... शराबबंदी भी और शराबखोरी भी...

सरकारें कई नियम लागू करती हैं. जिनमें से कुछ तो कामयाब हो जाती हैं, लेकिन कई दम तोड़ देती हैं. हालांकि कई ऐसी होती है जो इन सबसे अलग होती है. अलग इस मायने में कि सरकारें उन्हें या तो अपनी ठोस छवि दिखाने की ललक में या फिर पब्लिक की आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए लागू करती हैं. लेकिन होता उलटा ही है. ऐसे नियम या नीतियां जी का जंजाल ही बन जाती हैं. 
अब तक काफी कुछ लिखा और कहा जा चुका है बिहार और दूसरे राज्यों की शराबबंदी की नीतियों के बारे में. मैं शराब का कोई समर्थन नहीं कर रहा, लेकिन मैं सिर्फ ये कहना चाहता हूं कि शराबबंदी ने सरकारों के लिए नई मुसीबतों को जन्म दिया है. कभी पढ़ने को मिलता है कि बिहार में शराब को बोरों में भरकर शहर और गांव के तालाब में छुपाया गया तो कभी खबर आती है कि तस्करी के लिए स्मग्लर ट्रकों में भरकर शराब पंजाब हरियाणा से मंगा रहे हैं. ये कोई इक्का-दुक्का मामले नहीं हैं, ऐसी हजारों खबरें आ चुकी हैं और अभी भी आ रही हैं कि किस तरह शराबबंदी के बावजूद स्मग्लर बाज नहीं आ रहे हैं. अब इसका एक दूसरा पहलू भी है. अगर तस्करी हो रही है तो जाहिर तौर पर इसके लिए बाज़ार है, तभी स्मग्लरों का कारोबार सरकारी मशीनरी के नाक के नीचे चल रहा है. गुजरात में कई सालों से शराबबंदी है, लेकिन वहां लगभग हर शहर में कई ऐसे इलाके हैं जहां धड़ल्ले से शराब आज भी बेची जाती है. सवाल उठता है कि गांधी की जन्मस्थली गुजरात में सालों से शराबबंदी का क्या असर हुआ है? क्या वाकई में शराब बंद हो गई है और क्या शराबबंदी के बाद जन्मी नई पीढ़ी शराब से दूर है? क्या नई पीढ़ी शराब को हाथ तक नहीं लगाती है? क्या वाकई में ऐसा है? लगता तो नहीं है. गुजरात से अब भी काफी सारे लोग दमन और दीव में छककर शराब पीने जाते हैं. यही हाल गुजरात से सटे राज्यों की सीमावर्ती इलाकों का है. राजस्थान में हालांकि शराबबंदी नहीं है. वहां पर कई संगठन शराबबंदी लागू करने की अपील राज्य सरकार से कर रहे हैं. राजस्थान सरकार को एक दूसरी ही समस्या से जूझना पड़ रहा है. ये हास्यास्पद है और साथ ही किसी भी सरकार के मुंह पर तमाचा भी कि कैसे उसकी ही सकारात्मक योजनाओं का दुरूपयोग शराब कारोबारी करते हैं. 
राजस्थान सरकार ने लड़कियों को स्कूल जाने से प्रोत्साहित करने के लिए नारंगी रंग की साइकिलें दी. लेकिन अब इन्ही साइकिलों से शराब की होम डिलीवरी का काम गांव-कस्बों में धड़ल्ले से हो रहा है. शराब कारोबारी नाबालिग लड़कों (जिन लड़कियों को राजस्थान सरकार ने साइकिल दी, उनके भाई) को पैसे देकर घरों में शराब भेजने का धंधा कर रहे हैं. ऐसा नहीं है कि शराब की होम डिलीवरी करने वाले नाबालिग लड़कों के बारे में पुलिस और एक्साइज के अधिकारियों को जानकारी नहीं है. लेकिन व्यवस्था ऐसी है कि सब बेपरवाह चलता है बिना किसी रोक टोक के. स्कूल जाने वाले कई छात्र इस धंधे में लगे हैं. 
शायद ये बोलना बुरा लग सकता है, लेकिन सच्चाई यही है कि हजारों सालों से शराब के व्यापार को खत्म करने की कोशिश की गई, लेकिन ऐसा नहीं हो सका. कई बार आंशिक सफलता मिली लेकिन, जैसे ही सत्ता परिवर्तन हुआ वैसे ही सबकुछ पहले जैसा ही झट से हो गया. इस बात की कोई गारंटी नहीं दे सकता कि कल को बिहार में सत्ता परिवर्तन हुआ तो शराबबंदी से पाबंदी ना हट जाए. तो आखिर कैसे बहुसंख्यक आबादी को नशाखोरी से दूर रखा जाये?  
राज्य सरकारो ंकी एक और असलियत तो ये भी है कि शराब की बिक्री से उन्हें मोटी आमदनी होती है. इसलिए भी देश के कई राज्यो में सरकारें शराब बेचने का लाइसेंस देती है. शराबबंदी के बाद तो उनकी इस मोटी आमदनी को भी झटका लगेगा. एक तरीका ये हो सकता है कि सरकारें अपनी मशीनरी को दुरुस्त करें, नियमों का पालन कड़ाई से करवाए और साथ ही शराब छोड़ने वालों को सरकारी प्रोत्साहन दिया जाये. ऐसे लोगों को सामाजिक और प्रशासनिक तौर पर सम्मान दिया जाये जिन्होंने शराब छोड़ दी हो. दूसरी तरफ, शराब पर ज्यादा से ज्यादा टैक्स लगाया जाये जिससे ये और महंगी होकर बहुसंख्यक आबादी की पहुंच से दूर हो जाये. लेकिन, ऐसा करने के साथ-साथ अवैध शराब के उत्पादन और बिक्री पर कड़ा प्रहार करना भी ज़रुरी होगा. 

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