कहीं पीछे ना छूट जाए...

जो लोग बड़े शहरों में रहते हैं.. काम में व्यस्त रहते हैं.. जीने के लिए वक्त ना सही, काम के लिए वक्त निकाल ही लेते हैं.. वैसे लोगों की तादाद अब महानगरों से होकर छोटे शहरों की तरफ बढ़ती दिख रही है.. हमने एक ऐसी जीवन शैली को अपना लिया है जहां कमबख़्त हर चीज के लिए समय होता है और नहीं होता है तो बस अपने लिए चंद सुकून के लम्हे.. पैसा कमाने की होड़, आगे बढ़ने की ललक, समाज में खुद को साबित करने की चाह, हमेशा एक स्टेटस मेंटेन करने की सनक.. ये सब चलता रहता है.. ज़िंदगी भागती रहती है.. हम दौड़ते रहते हैं.. और इन सबके बीच कहीं वो ऐसे पीछे फिसलता जाता है जैसे मुट्ठी में बंद रेत.. वो अपनी ही उन्मुक्त बेलाग हंसी की खनखनाहट खुद के कानों में ही पड़े साल दर साल गुजरते गुजरते दशक पीछे छूट जाते हैं.. पता नहीं चलता कि कब सामने से सब कुछ बदल गया, हम बदल गए..
तो सार यही है.. सब कुछ बदले, मगर हम-आप ना बदले.. वो हंसी ना छूटे..वो खुशी ना रूठे..ज़िंदगी तो चलती रहेगी लेकिन जीना थमे नहीं...खुशगवार चलता रहे..

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