क्या कूल हैं हम - मनोरंजन या फिर.. ?



ये लंबे समय से विवाद का विषय रहा है कि क्या सिनेमा केवल मनोरंजन के लिए है या फिर इसका कोई सामाजिक सरोकार भी है.. दुनियाभर के फिल्म निर्माता-निर्देशक इसपर सहमति और असहमति रखते हैं.. सिनेमा के लगभग शुरूआत से ही इसके पक्ष-विपक्ष में तर्क दिए जाते रहे है और ये सिलसिला आज भी बदस्तूर जारी है.. अगर हम सिनेमा के विषयों को देखें तो इसका सीधा संबंध सामाजिक विषयों से ही होता है.. घटनाएं समाज से ही आती है.. फिल्मकार प्रभावित होते हैं और फिर फिल्म फिल्मों का निर्माण होता है.. कलाकार किरदारों को निभाते वक्त किसी न किसी मिलते-जुलते शख्स को ध्यान में रखते हैं और किरदारों के हाव-भाव उनके इर्द-गिर्द बुनने की कोशिश करते हैं.. इन्हीं में से महान और कभी न भूलने वाले किरदारों का जन्म सुनहरे पर्दे पर होता है.. ये तो फिल्मों के उपर समाज की सिर्फ एक तस्वीर है.. गौर से देखेंगे तो हर जगह समाज का प्रभाव फिल्मों के उपर दिखाई देगा.. और जब ये असर इस हद तक है तो कैसे फिल्मों को सामाजिक सरोकार से अलग करके देखा जा सकता है... फिल्में मनोरंजन के लिए हो, लेकिन केवल मनोरंजन भर से भी फिल्मी दुनिया एक ऐसी जगह हो जाएगी जिसकी गंभीरता खतरे में पड़ जाएगी.. 

आप जरा सोचिए कि जिस फिल्मकार ने इस विधा को साध लिया जिसमें फिल्में मनोरंजक के साथ-साथ सामाजिक सरोकारों से जुड़ी हों.. थिएटर में जब फिल्म खत्म हो तो दर्शक अपने साथ कुछ ले जाने की स्थिति में सीट से उठे तो सिनेमा की प्रासंगिकता अपने-आप ही बढ़ जाएगी.. लेकिन इसमें भी ये बात ध्यान रखने लायक होगी कि ऐसी फिल्मों के निर्माण के वक्त निर्देशक दर्शकों को सीख देने की ना सोचने लगे.. निर्देशक अपनी सीमा में ही रहकर दर्शकों को सोचने पर विवश करे ना कि खुद ही दार्शनिक और समाज सुधारक के रोल में उतर आए.. जिस निर्माता-निर्देशक ने ये संतुलन साध लिया वो राज कपूर, गुरूदत्त या फिर राजकुमार हिरानी की लीग में शामिल हो जाएगा..

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